बस ऐसे ही उड़ा ले गई, मौत की आंधी,
कि तुम यकायक क्षणिक हो गए।
निद्रा से चिरनिद्रा में लीन हो गए।
कालगति से परे चिरंतन में विलीन हो गए।
अंधेरे से लड़ती एक कंदील का प्रणिपात हो गया।
देह की अंतिम केंचुली उतार मुक्ति का लबादा ओढ़ चल दिए।
घर की देहरी पर छूट गए संवाद , और कोलाहल मौन हो गया।
सूखे अधरो पर स्मित हास की अमिट छाप स्मृति पटल पर अंकित कर गए।
कि तुम यकायक क्षणिक हो गए
समय सारिणी में समय एक निमिष में सिमट गया।
और स्तब्ध सी खड़ी श्वास के आरोह अवरोह को साधने की निष्फल कोशिश करती मैं ।
उम्मीद की लौ हाथो से ढांपे बुझने की कोशिश करती मैं
तमस की गहनता से अनभिज्ञ उजाले की कामना करती मैं
हाथ से छुटती हथेलियों को कस कर पकड़ने की पुरजोर कोशिश करती मैं
एकाएक श्वाश की गति मंद होकर एक रेखीय हो गई।
मुट्ठी में रेत की तरह फिसलती ही चली गई।
प्रार्थना ,साधना सब मौन हो गई।
बस ऐसे ही उड़ा ले गई मौत की आंधी
और तुम अंतिम शरणगाह की और अग्रसर हो गए।
और हमारी पटकथा के सूत्रधार का पटाक्षेप हो गया।।

उम्मीद

आज के संदर्भ में भय और आशंका का व्यूह रच गया है।
भ्रम और भ्रांति का भ्रमजाल बिछ गया है।
अन्धकार का महासिंधू प्रकाश को लीलने को आतुर है।
अप्रत्याशित आपदा की उद्दाम आंधी अतिक्रमण को प्रतिबद्ध है।
अघोषित समय चक्र स्थिर ,निशब्द और निस्तब्ध हैं।
बंधी है वाणी, बंधनमय हो गई गति है।
वर्जनाओं और प्रतिबंध की लक्ष्मणरेखा खींच गई है।
स्वयं संग हर कोई हुआ स्वयं से आबद्ध है।
अदृश्य रक्तबिजी शत्रु बांह पसारे आक्रमण को तत्पर है,
प्रवाह के साथ असंख्य रक्तबीजों को रक्त में रोपने को लालायित।
मनुजता की विरासत को नेस्तनाबूद करने का दृढ़ निश्चय किए हुए।
पर क्या ये सक्षम है हमारी,उम्मीद की लौ को बुझाने में
माना बंद है द्वार ,बंद है वतायान पर दरारो से आने को है
आस उजास की
झंझावतों के चक्रव्यूह को तोड़कर रचने को है, नव इतिहास।
निराशा के पतझड़ के बाद नववसंत फिर खिलने को है।
निस्पंद निशी का प्रातः में विलय अवश्यंभावी होने को है
उम्मीद की बुझती लौ को सहेज कर विश्वास के दीपो की श्रंखला सजने को है।
श्वासो की गणना निश्चित है, पर श्वास पर प्रतिबंध को नकारना है।
समर अभी शेष है, पर विश्वास अजेय है।
प्राची की अरुणिमा का आवाह्न होने को है।
आगत समय रथ को सार्थने उम्मीद का सारथी प्रगट होने को है।
जीवन रण में जीत की दुंदुभी बजने को है।।

अब चॉकलेट अच्छी नही लगती।।

माँ अब मुझे चॉकलेट नही अच्छी लगती है।
इसके लालच मे सब ख़त्म हो जाता है,
माना माँ ये बहुत स्वादिष्ट होती है।
पर इसकी कीमत तो बहुत भारी होती है।
एक चॉकलेट का लालच बहुत कुछ छीन लेता है।
कितना गहरा दंश दे देता है।
हाँ ,माँ अब मुझे चॉकलेट अच्छी नही लगती है।
अब वो मुझे बहुत कड़वी लगती है।
वो अंकल चॉकलेट दिखाकरआज उसे ले गए।
तो कल मुझे भी ले जा सकते है।
नही मां मुझे अब चॉकलेट नही अच्छी लगती है।
माँ ,हमारा कसूर क्या है माँ।
क्या ,हमारा लड़की होना अभिशाप है माँ।
क्यो ,एक चॉकलेट के बदले हमे लहूलुहान कर दिया जाता है।
मां हम तो मासूम और नादान है।
फिर क्यों हम पर ऐसा घिनोना अत्याचार होता है।
क्यो ,किसी हैवान का कलेजा फट नही जाता है
नही चाहिए कोई खिलौना ना ही कोई गुड़ियां।
इसकी कीमत तो उम्र भर का पछतावा है।
इसलिए ,माँ मुझे अब खिलोने अच्छे नही लगते।
माँ ,उसकी माँ कितना रो रही थी।
माँ ,मेरी माँ ,तुम्हे कभी इतना रोना न पड़े।
इसलिये अब मुझे चॉकलेट नही अच्छी लगती।
अब मुझे चॉकलेट बिल्कुल अच्छी नही लगती।

उपहार!

उपहार की प्रासंगिकता पृथक -पृथक है।
उपहार पिता का बेटी के विवाह मे ,
जिसका चित्रांकन तो किया जा सकता है ।
पर मूल्यांकन नही किया जा सकता।।
जिसके आकलन का आधार तो है।
पर परिमार्जन का विवरण नही दिया जा सकता।।
उसके ब्रह्याण्ड का संशिप्त है बेटी।
पर बेटी का एकमात्र ब्रह्याण्ड वो हो नही सकता।।
कल तक साया थी वो उसकी।
आज दूसरा हमसाया उपहार मे वो लाया है।।
जीवन मंजूषा का अनमोल रत्न है वो।
उसे सहज समर्पित कर कर्तव्यनिर्वाहन वो कर आया है।।
प्रामाणिक था उसका दुख।
पर फिर भी मौन रुदन कर नतमस्तक वो हो गया है ।।
मिलन व वियोग की संयुक्त वेला मे।
सुख -दुख की व्यंजना के क्षणों मे।
अपनी अंतिम पूंजी वर्षो से पोषित जीवन धरोहर की सौगात
वो सौप आया है।।
उपहार पिता का बेटी के विवाह मे,
जिसका चित्रांकन तो किया जा सकता है।
पर मूल्यांकन नही किया जा सकता।।
किसी के लिए वो जीवन भर की पूंजी है।
तो किसी के लिए वो किन्चित मिथ्याभिमान की कुंजी है।।

बंद दरवाजा !!

पुराना खँडहर ,सूना दालान ।
मूक स्मृति का रुद्र क्रंदन ।।
टूटी खिड़कियां, ढहते गुम्बद ।
कराह रहा है दर्द पलायन ।।
जख्मी झरोखे से बाहर झांकता अतीत ।
आहट और दस्तक का अंतहीन इंतजार ।।
दरवाजे की बंद सांकल पर मौन जंग ।
असमंजस के क्षण क्षण पलछिन कटते दिन ।।
धुँए से धुँधली पड़ गयी काली दीवारे ।
हर लम्हा पदचाप की ध्वनि तलाशता।।
बंद दरवाजे की संकरी झिरी से झांकता ।
वृतांत सुनहरे आह्लादित अतीत का।।
खंडित मेहराब और गिरते कंगूरे ।
असंख्य स्मृतियों के संग्रहालय ।।
मौन पतन के साक्षी बंद गवाक्ष ।
शशक्त सृजन शर्मसार विखंडन का उदारहण।।
क्रूर व्यंग्य निष्ठुर पलायन का
अभिशप्त अहिल्या समान प्रस्तर सा अडिग बंद दरवाजा ।
अपने राम के स्पर्श के अभिलाषी ।।
द्वार पर बुतनुमा ताला और जर्जर भित्तियों से झांकती ईंटे।
खुद को खुरच कर विस्मृति की वेदना का वंदन।।
उजाड़ निर्जन ठंडी आह भरते खँडहर के मानिंद मकां
कब से कब तक कि व्याख्या करते ,
कि संघर्ष अभी जारी है ,पर हौसला अभी बुलंद है ।।
दस्तक की अभिव्यंजना गुंजित होगी।
औऱ स्नेहनीड़ का पुनः सृजन अवश्यम्भावी है।।

Book launch event at Asian Literary Society

I got a little late in updating and sharing with you all that last month I got the honour of participating in the Asian Literary Society’s first convener meet, held in New Delhi where my book ‘SPANDAN’ was launched!

My book is a collection of poetry and it is my first book published.

I would be honored to get your views on the book.

You can find my book on amazon.in –

https://www.amazon.in/Spandan-Pratima-Mehta/dp/1946822779/ref=mp_s_a_1_1?ie=UTF8&qid=1541439892&sr=8-1&pi=AC_SX118_SY170_QL70&keywords=spandan+pratima+mehta&dpPl=1&dpID=51qX7wR9fAL&ref=plSrch


– Pratima Mehta

ख्वाहिशें

ख्वाहिशों का क्षितिज असीम है |

कल्पनाओँ का विराट सैलाब है ||

कभी , अनकही अधूरी ख्वाहिशों का जाल |

तो कभी , गवाक्ष खोल उडान भरती हसरतो का अंदाज ||

कभी ,नव जीवन सृजन की पल्लवित अभिलाषाएँ |

तो कभी ,मानवता के ध्वँस को उन्मुख ख्वाहिशें|

कभी ,अभीष्ट पर कुर्बान होने की तमन्ना |

तो कभी ,अन्तः ज्वाला से तपित दग्ध कामना ||

कभी ,प्रणय रागिनी की अलौकिक धारा से स्पंदित अभिलाष |

तो कभी ,चिर विरही मिलन की आकुल तृषा||

कभी ,काल्पनिक स्वर्ग की ख्वाहिश |

तो कभी ,मन के खंडहर की प्रदक्षिणा की गुज़ारिश||

कभी ,शून्य से शिखर तक उत्थान की कामना |

तो कभी ,धूमिल स्वप्न पतन की कंपित आशंका ||

कभी ,अति सूक्ष्म निराकार निर्मल आनंदित ख्वाहिशें |

तो कभी ,बंधन विहीन विहंगम फरमाइशें ||

कभी ,शैशव के सपने.व् मदमाते यौवन की ख्वाहिशें |

तो कभी ,कर्तव्य कर्म से बंधन मुक्त होने की हसरते ||

कभी ,मृगतृष्णा से भ्रमित संचित आकांक्षाये |

तो कभी ,कटु सत्य से प्रेरित अभिलाषाएँ ||

आरम्भ बिंदु है ख्वाहिशों का ,

मनुज के प्रथम खोलते लोचन मे|

और हुलसती है ,प्राणहंत होने तक ||

ख्वाहिशे चिरन्तर आस की स्फुलिंग है |

इसलिए, ख्वाहिशों का क्षितिज असीम है ||

जरा सा हौसला होता तो

जरा सा हौसला होता तो ,तूफ़ां से गुजर जाते |

जीने का सहारा होता तो ,हद से गुजर जाते ||

हमसफ़र का साथ होता तो, जिंदगी मे कई रंग भर जाते

तिनके का सहारा होता तो , दरिया जिंदगी का पार कर जाते ||

असर गर होता अल्फ़ाजों मे तो , महफ़िल को कायल कर जाते |

वक्त गर सख्त न होता तो , उल्फत की सरहद पार कर जाते ||

काफिले बहारो के रूठे न होते तो, रुपहले अरमान मंजिल पा जाते ||

रिश्ते गर पुख्ता होते तो , मकाँ घरोंदे मे तब्दील हो जाते

अधूरी किस्मत का सितारा गर बुलंद होता तो, वस्ल की सूरत मिल जाती ||

गर रहगुज़र सूनी ना होती तो, मंजिल आसां हो गयी होती

रुबाई गर रूठी ना होती तो ,दिलकश ग़ज़ल बन गयी होती ||

दिल के वीराने पर नजरें करम होता तो ,मेहताब आगोश मे होता ||

पलके झुका ना ली होती तो, खवाबो की ताबीर मुकम्मल हो जाती ||

गर सहर ना होती तो ,इंतजार को मंजिल मिल जाती ||

गर दिल के हर्फ़ पर नाम लिख लिया होता तो , सिरते इश्क से वाकिफ हो गए होते ||

बहुत दूर तलक

बहुत दूर तलक आ गए हम ,

बहुत पीछे कही छूट गए तुम |

कारवां बढ़ चला मंजिल की ओर,

और हम यादो को दफ़न कर आये कब्र मे ||

बहुत दूर तलक आ गए हम ,

,बहुत पीछे कही छूट गए तुम |

दास्तां मुक्त हो गयी अपने अंजाम से ,

और हम ताबीर मिटा आये चंद लम्हो की इबारत से

बहुत दूर तलक आ गए हम ,

,बहुत पीछे कही छूट गए तुम |

अंदाजे बयां बदल दिया बाअदब अल्फाज से

और तब्दील होगये मुख़्तसर अपने आप से ||

बहुत दूर तलक आ गए हम ,

,बहुत पीछे कही छूट गए तुम |

कांधो पर ढोना छोड़ दिया रिश्तो के बोझ को

और वजूद को सिमटा लिया अपने ही खोल मे ||

, बहुत दूर तलक आ गए हम

बहुत पीछे कही छूट गए तुम |

खलिश से दामन छुड़ा लिया जुबां ने

और संवारना छोड़ दिया काँटों सजे गुलो को गुलशन मे

बहुत दूर तलक आ गए हम ,

,बहुत पीछे कही छूट गए तुम |

एहसास शिद्दत तर कर गयी दामन को ,

और दस्ताने गम को दरबदर कर आये दिले आशियाँ से |

बहुत दूर तलक आ गए हम ,

,बहुत पीछे कही छूट गए तुम |

रंग ए महफ़िल सज गयी रंग महल मे ,

और लबो पर ,तरनुम छेड़ आये पैगामे जिंदगी के ||

बहुत दूर तलक आ गए हम ,

,बहुत पीछे कही छूट गए तुम |

फासले मिट गए दरमियाने मेहताबो के

और हम तो मुक्त हो गए सरहदों के जाल से

बहुत दूर तलक आ गए हम ,

,बहुत पीछे कही छूट गए तुम |